दिल्ली हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मिलाद-उन-नबी के दौरान “I Love Muhammad” पोस्टर लगाने को लेकर दर्ज कई एफआईआर की निष्पक्ष जांच की मांग करने वाली जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया। याचिका में आरोप लगाया गया था कि दोनों राज्यों की पुलिस ने सांप्रदायिक पक्षपात दिखाते हुए शांतिपूर्ण धार्मिक अभिव्यक्ति को अपराध के रूप में प्रस्तुत किया।
मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने शुजात अली द्वारा दायर याचिका को यह कहते हुए निरस्त किया कि याचिकाकर्ता के पास पर्याप्त सार्वजनिक हित का आधार नहीं है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अन्य राज्यों में दर्ज एफआईआर से जुड़े मामलों में दिल्ली हाईकोर्ट कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं कर सकता।
याचिकाकर्ता का कहना था कि आरोपी लोगों ने बारावफात के जुलूस के दौरान केवल पैगंबर मोहम्मद के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की थी और कोई गैरकानूनी कार्य नहीं किया। हालांकि, अदालत ने कहा कि संबंधित व्यक्ति उचित कानूनी माध्यमों से अपनी बात रख सकते हैं।
एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (APCR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, शुरुआती चरण में कम से कम 21 एफआईआर दर्ज की गई थीं, जिनमें 1,300 से अधिक मुस्लिम नागरिकों को आरोपी बनाया गया। अक्टूबर की शुरुआत तक यह संख्या बढ़कर 4,500 से अधिक पहुंच गई, जबकि 265 लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। रिपोर्ट में रात्रिकालीन छापों, मनमानी हिरासत और पोस्टर लगाने वाले घरों पर कार्रवाई जैसे आरोप भी शामिल हैं।
वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मामले को पक्षपातपूर्ण कार्रवाई का उदाहरण बताते हुए कहा कि पैगंबर मोहम्मद के प्रति प्रेम व्यक्त करना आस्था का हिस्सा है, न कि किसी प्रकार का उकसावा।
यह विवाद 4 सितंबर 2025 को कानपुर में शुरू हुआ, जब सैयद नगर की ज़फर वाली गली में निकाले गए बारावफात जुलूस के दौरान प्रतिभागियों ने “I Love Muhammad” लिखा बैनर लगाया था। आरोप है कि कुछ हिंदुत्ववादी समूहों के सदस्यों ने नारेबाजी करते हुए बैनर को फाड़ दिया। इसके बावजूद पुलिस ने 25 मुस्लिम नागरिकों पर सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने और शांति भंग करने के आरोपों में प्रकरण दर्ज किया, जबकि बैनर फाड़ने वालों पर तत्काल कोई कार्रवाई नहीं हुई।

